तर्पणका फल
एकैकस्य तिलैर्मिश्रांस्त्रींस्त्रीन् दद्याजलाञ्जलीन् ।
यावज्जीवकृतं पापं तत्क्षणादेव नश्यति ।।
एक – एक पितर को तिलमिश्रित जल की तीन – तीन अञ्जलियाँ प्रदान करे । ( इस प्रकार तर्पण करने से ) जन्म से आरम्भ कर तर्पण के दिन तक किये पाप उसी समय नष्ट हो जाते हैं ।
तर्पण न करने से प्रत्यवाय ( पाप ) –
ब्रह्मादिदेव एवं पितृगण तर्पण न करने वाले मानव के शरीर का रक्तपान करते हैं अर्थात् तर्पण न करने के पाप से शरीर का रक्त – शोषण होता है ।
‘अतर्पिता : शरीराद्रुधिरं पिबन्ति’
इससे यह सिद्ध होता है कि गृहस्थ मानव को प्रतिदिन तर्पण अवश्य करना चाहिये ।
तर्पण के योग्य पात्र
सोना , चाँदी , ताँबा , काँसाका पात्र पितरों के तर्पण में प्रशस्त माना गया है । मिट्टी तथा लोहे का पात्र सर्वथा वर्जित है-
हैम रौप्यमयं पात्रं तानं कांस्यसमुद्भवम् ।
पितॄणां तर्पणे पात्रं मृण्मयं तु परित्यजेत् ।।( आह्निक सूत्रा . )
तिल – तर्पण का निषेध-
सप्तमी एवं रविवार को , घरमें , जन्मदिन में , दास , पुत्र और स्त्री की कामना वाला मनुष्य तिलसे तर्पण न करे । नन्दा ( प्रतिपदा , षष्ठी , एकादशी ) तिथि , शुक्रवार , कृत्तिका , मघा एवं भरणी नक्षत्र , रविवार तथा गजच्छायायोग में तिलमिले जलसे कदापि तर्पण न करे-
सप्तम्यां भानुवारे च गृहे जन्मदिने तथा ।
भृत्यपुत्रकलत्रार्थी न कुर्यात् तिलतर्पणम् ॥
नन्दायां भार्गवदिने कृत्तिकासु पघासु च ।
भरण्यां भानुवारे च गजच्छायाह्वये तथा।
तर्पणं नैव कुर्वीत तिलमिश्रं कदाचन ।। ( आचारमयूख )
पितृ तर्पण में कुश एवं दिशा का ज्ञान-
कुशाके अग्रभाग से देवताओं का , मध्य से मनुष्यों का और मूल तथा अग्रभाग से पितरों का तर्पण करे-
कुशाप्रैस्तर्पयेद्देवान् मनुष्यान् कुशमध्यतः ।
द्विगुणीकृत्य मूलाग्रैः पितॄन संतर्पयेद्विजः ।
प्रादेशमात्रमुद्धृत्य सलिलं प्राङ्मुखः सुरान् ।
उदमनुष्यास्तृप्येत्तु पितॄन् दक्षिणतस्तथा ॥दक्षस्मृति ।
अप्रैस्तु तर्पयेद् – देवान् मनुष्यान् कुशमध्यतः ।
पितृस्तु कुशमूलाग्रैर् विधिः कौशी यथा – क्रमम् ॥
वाचस्पत्यम्|
तर्पण | कुश | दिशा |
देव | कुशाग्र | पूर्वाभिमुख |
मनुष्य | कुशमध्य | उत्तराभिमुख |
पितृ | कुशमूल | दक्षिणाभिमुख |
दक्षिणाग्र भाग
घर में , ग्रहण , पितृश्राद्ध , व्यतीपातयोग , अमावास्या तथा संक्रान्तिके दिन निषेध होने पर भी तिल से तर्पण करे । किंतु अन्य दिनों में घर में तिलसे तर्पण न करे-
उपरागे पितृश्राद्धे पातेऽमायां च संक्रमे ।
निषेधेऽपीह सर्वत्र तिलैस्तर्पणमाचरेत् ॥
( आह्निकसूत्रावलि- भाग ४ , कात्यायनका वचन )
पितृ तर्पण में जलाञ्जलि का ज्ञान
एकैकम् अजलिं देवा द्वौ द्वौ तु सनकादयः । अर्हन्ति पितरस्त्रीस्त्रीन् स्त्रिय एकैकम् अजलिम् ॥
व्यास / छान्दोग्य परिशिष्ट ।
मातृ मुख्यास्तु यास्तिस्त्रस्तासां त्रीस्त्रीजलाञ्जली ।
सपत्न्याचार्य पत्नीनां द्वौ द्वौ दद्याञ्जलाञ्जली ॥ सांख्यायनः ।
तर्पण अभीष्ट देव | जलांजलि मात्रा |
देव | 1 |
मनुष्य | 2 |
पितर | 3 |
माता, पितामही, प्रपितामही | 3 |
सौतेली माँ, आचार्य पत्नी | 2 |
अन्य स्त्रियों को | 1 |
पितृतर्पण में यज्ञोपवीतके सव्य-अपसव्यका निर्णय
निवीती हन्तकारेण मनुष्यांस्तर्पयेदथ । (वाचस्पति)
निवीतं कण्ठलम्बनम् । ( औशनस स्मृति)
सव्यबाहुं समुद्धृत्य दक्षिणेन धृतं द्विजैः ।
प्राचीनावीतमित्युक्तं पित्र्ये कर्मणि धारयेत्॥ औशनसस्मृति ।
सव्येन देव कार्याणि वामन पितृ तर्पणम् ।
निवीतेन मनुष्याणां तर्पणं संविधीयते ॥ आग्नेय पुराण ।
यज्ञोपवीत संज्ञा
सव्य या उपवीत संज्ञा
निवीत संज्ञा
अपसव्य या प्राचीनावीत संज्ञा
यज्ञोपवीत संज्ञा | यज्ञोपवीत की स्थिति | तर्पणीय देव |
सव्य या उपवीत | यज्ञोपवीत बायें कंधे पर | देव तर्पण |
निवीत संज्ञा | यज्ञोपवीत कंठ में माला की भांती | दिव्य मनुष्य तर्पण |
अपसव्य या प्राचीनावीत संज्ञा | यज्ञोपवीत दायें कंधे पर | पितृतर्पण |
पितृतर्पण में तिलकी महिमा
तिल और कुशा के साथ श्रद्धा से जो कुछ दिया जाता है ,
वह अमृत रुप होकर पितरों को प्राप्त होता है-
तिलदर्भस्तु संयुक्तं श्रद्धया यत् प्रदीयते। तत्सर्वममृतं भूत्वा पितॄणामुपतिष्ठते ॥ वायु पुराण।
तर्पण में पानि के साथ कुश, तिल, सोना, चांदी का प्रयोग करना चाहिये। अन्यथा केवल पानी का प्रयोग करने से राक्षस को प्राप्त होता है-
दर्भः मन्त्रैः तिलैः हेम्ना रजतेन विना जलम् ।
दत्तं हरन्ति रक्षांसि तस्मात् दद्यान् न केवलम् ॥ हेमाद्रि, श्राद्धखण्ड ।
दिव्य मनुष्यों और पितरों के लिये क्रमशः श्वेत, शबल, और काले तिल का उपयोग करना चाहिये-
शुक्लैस्तु तर्पयेद्देवान् मनुष्याञ्च्छबलैस् तिलैः ।
पितृस्तु तर्पयेत् कृष्णैस् तर्पणे सर्वदा द्विजैः ॥ याज्ञवल्क्य ।
जिसका पिता जीवित हो उस के द्वारा तिल तर्पण का
निषेध किया गया है
दर्श श्राद्धं गया श्राद्धं तिलैः तर्पणमेव च
न जीवत्पितृको भूप कुर्यात्कृत्वाघमाप्नुयात् ॥ अग्निपुराण |
अग्निष्वात्त पितर
इस लोक में मृत्यु के पश्चात् जिनका शरीर दग्ध किया गया है। वे अग्निष्वात्त पितर कहे जाते है।
पितृ तर्पण में पितरों का क्रम
श्राद्ध तथा तर्पण के लिये स्वगोत्र तथा पितरों अर्थात् ताताम्बादि धर्मशास्त्रोंमें विभिन्न गोत्रवाले बान्धवों की गणना इस प्रकार की गयी है, जिनके लिए तर्पण और श्राद्ध करने का विधान है –
ताताम्बात्रितयं सपत्नजननी मातामहादित्रयं
सस्त्रि स्त्रीतनयादि तातजननीस्वभ्रातरस्तत्स्त्रियः ।
ताताम्बाऽऽत्मभगिन्यपत्यधवयुग् जायापिता सदगुरुः
शिष्याप्ताः पितरो महालयविधौ तीर्थे तथा तर्पणे ।।
अर्थात् (१) पिता, (२) पितामह (दादा), (३) प्रपितामह (परदादा), (४) माता, (५) पितामही (दादी), (६)
प्रपितामही (परदादी), (७) विमाता (सौतेली माँ), (८) मातामह (नाना), (९) प्रमातामह ( परनाना), (१०) वृद्धप्रमातामह (वृद्धपरनाना), (११) मातामही (नाती) (१२) प्रमातामह (परनानी), (१३) वृद्धप्रमातामही (वृद्धपरनानी), (१४) स्त्री (पत्नी), (१५) पुत्र (पुत्री), (१६) चाचा, (१७) चाची, (१८) चाचाका पुत्र, (१९) मामा, (२०) मामी, (२१) मामाका पुत्र, (२२) अपना भाई (२३) भाभी, (२४) भाईका पुत्र, (२) फुफा, (२६) फूआ, (२७) आका पुत्र, (२८) मौसा, (२९) मौसी, (३०) मौसाका पुत्र, (३१) अपनी बहन, (३२) बहनोई, (३३) बहनका पुत्र, (३४) श्वशुर, (३५) सासु, (३६) सद्गुरु, (३७) गुरुपत्नी, (३८) शिष्य, (३९) संरक्षक, (४०) मित्र तथा (४१) भृत्य (सेवक)। ये सभी इसी क्रम से महालय विधि (पितृपक्ष श्राद्ध) तथा तीर्थश्राद्ध एवं तर्पण के पितर निश्चित किये गये है।
गोत्र सम्बन्ध नाम उच्चारण
शर्मान्तं ब्राह्मणस्थोक्त वर्मान्तं क्षत्रियस्थ तु।
गुप्तान्त चैब वैश्यस्य दासान्तं शूद्रजन्मनः ॥ बौधायन
चतुर्णामपि वर्णानां गोत्रत्वे पितृ गोत्रतः
पितृगोत्रं कुमारीणां मूढानां भर्तृगोत्रता ॥ पारस्करगृह्यसूत्र।
वस्त्रनिष्पीडन के विषय में स्मृतियों के वचन
वस्त्र नीचोड़ने से जो जल निकलता है, वह स्नान करने वाले पुरुष ‘के उच्छिष्ट भागी जीवों का भाग है
वस्त्र निष्पीडितं तोय॑ स्नातस्योच्छिष्ट भोजिनाम् ।
भागधेयं श्रुतिः प्राह तस्मान् निष्पीडयेत् स्थले ॥ योगियाज्ञवल्क्यः
जब तक इन ऋषियों और पितरों का तर्पण न कर ले, तब तक मनुष्य उस वस्त्र को न निचोड़, जिसे पहनकर उसने स्नान किया हो
यावदेता नृषींश्चैव पितृश्चापि न तर्पयेत्। तावन्न पीडयेद्वस्त्रं येन स्नातो भवेन्नरः ॥ वृद्धियोगी ।
वस्त्र को चार आवृत्ति लपेटकर उसे जल से बाहर ले जाकर निचोड़। फिर उसे बाय कलाई पर रखकर दो बार आचमन करके पवित्र हो जाय
वस्त्रं चतुर्गुणीकृत्य निष्पीड्य च जलाद्बहिः । वामकोष्ठे विनिष्पीड्य द्विराचम्य शुचिर्भवेत् ॥ स्मृत्यन्तरे
सम्पूर्ण तर्पण विधि जानें
(देव, ऋषि और पितृ सम्पूर्ण तर्पण विधि)
सर्वप्रथम पूर्व दिशा की और मुँह करके, दाहिना घुटना | जमीन पर लगाकर, सव्य होकर (जनेऊ व अंगोछे को बांया कंधे पर रखें) गायत्री मंत्रसे शिखा बांध कर, तिलक लगाकर, दोनों हाथों की अनामिका अँगुली में कुशोंका पवित्री पैंती धारण करें।
फिर हाथ में त्रिकुशा, जौ, अक्षत और जल लेकर संकल्प पढ़ें
ॐ विष्णवे नमः ३
हरिः ॐ तत्सदद्यैतस्य श्रीब्रह्मणो द्वितीयपराधे श्रीश्वेतवाराहकल्पे वैवस्वतमन्वन्तरे अष्टाविंशतितमे कलियुगे कलिप्रथमचरणे जम्बूद्वीपे भरतखण्डे भारतवर्षे आर्यावर्तैकदेशे अमुकसंवत्सरे अमुकमा से अमुकपक्षे अमुकतिथौ अमुकवासरे अमुकगोत्रोत्पन्नः अमुकशर्मा (वर्मा, गुप्तो ऽहं श्रीपरमेश्वरप्रीत्यर्थं देवर्षिमनुष्यपितृतर्पणं करिष्ये ।
तीन कुश को ग्रहणकर निम्नमंत्र को तीन बार कहें
ॐ देवताभ्यः पितृभ्यश्च महायोगिभ्य एव च । नमः स्वाहाये स्वधायै नित्यमेव नमोनमः ।।
तदनन्तर एक ताँवे अथवा चाँदीके पात्रमें श्वेत चन्दन,
जौ, तिल, चावल, सुगन्धित पुष्प और तुलसीदल रखें, फिर उस पात्रमें तर्पण के लिये जल भर दें।
फिर उसमें रखे हुए त्रिकुश को तुलसी सहित सम्पुटाकार दायें हाथ में लेकर, बायें हाथ से उसे ढँकलें और देवताओं का आवाहन करें ।
आवाहनमंत्र
ॐ विश्वेदेवास ऽआगत श्रृणुता मऽइम@ हवम् । एवं वर्हिर्निषीदत ॥
‘हे विश्वेदेवगण ! आप लोग यहाँ पदार्पण करें, हमारे प्रेमपूर्वक किये हुए इस आवाहन को सुनें, और इस कुश के आसन पर विराजें ।
इस प्रकार आवाहन कर कुश का आसन दें, और त्रिकुशा द्वारा दायें हाथ की समस्त अगुलियों के अग्रभाग अर्थात् देवतीर्थ से ब्रह्मादि देवताओं के लिये पूर्वोक्त पात्रमें से एक-एक अञ्जलि चावल-मिश्रित जल लेकर दूसरे पात्रमें गिरावें, और निम्नाङ्कित रूपसे उन-उन देवताओंके नाममन्त्र पढ़ते रहें
देवतर्पण
ब्रह्मास्तृप्यताम्
ॐ विष्णुस्तृप्यताम् ।
ॐ रुद्रस्तृप्यताम् ।
ॐ प्रजापतिस्तृप्यताम् ।
ॐ देवास्तृप्यन्ताम् ।
ॐ छन्दांसि तृप्यन्ताम् ।
ॐवेदास्तृप्यन्ताम्
ऋषयस्तृप्यन्ताम् ।
ॐ पुराणाचार्यास्तृप्यन्ताम् ।
ॐ गन्धर्वास्तृप्यन्ताम् ।
ॐ इतराचार्यास्तृप्यन्ताम् ।
ॐ संवत्सरसावयवस्तृप्यताम् ।
ॐ देव्यस्तृप्यन्ताम्।
ॐ अप्सरसस्तृप्यन्ताम्।
ॐ देवानुगास्तृप्यन्ताम् ।
ॐ नागास्तृप्यन्ताम् ।
ॐ सागरास्तृप्यन्ताम्।
ॐ पर्वतास्तृप्यन्ताम् ।
ॐ सरितस्तृप्यन्ताम् ।
ॐ मनुष्यास्तृप्यन्ताम् ।
ॐ यक्षास्तृप्यन्ताम् ।
ॐ रक्षांसि तृप्यन्ताम् ।
ॐ सुपर्णास्तृप्यन्ताम्
ॐ भूतानि तृप्यन्ताम् ।
ॐ पशवस्तृप्यन्ताम् ।
ॐ वनस्पतयस्तृप्यन्ताम् ।
ॐ ओषधयस्तृप्यन्ताम् ।
ॐ भूतग्रामश्चतुर्विधस्तृप्यताम्
ऋषितर्पण
इसी प्रकार (देवधर्म से ही) निम्नाङ्कित मन्त्रवाक्योंसे मरीचि आदि ऋषियों को भी एक-एक अञ्जलि जल दें
ॐ मरीचिस्तृप्यताम् ।
ॐ अत्रिस्तृप्यताम्
ॐ अङ्गिरास्तृप्यताम् ।
ॐ पुलस्त्यस्तृप्यताम् ।
ॐ पुलहस्तृप्यताम् ।
ॐ क्रतुस्तृप्यताम् ।
ॐ वसिष्ठस्तृप्यताम् ।
ॐ प्रचेतास्तृप्यताम् ।
ॐ भृगुस्तृप्यताम् ।
ॐ नारदस्तृप्यताम् ॥
मनुष्य तर्पण
उत्तर दिशा की ओर मुँह कर, जनेऊ व गमछे को माला की भाँति गले में धारण कर, सीधे बैठकर निम्नाङ्कित मन्त्रों को दो-दो बार पढते हुए
दिव्य मनुष्यों के लिये प्रत्येक को दो-दो अञ्जलि जौ|
सहित जल प्राजापत्यतीर्थ (कनिष्ठिकाके मूला-भाग) से
अर्पण करें
ॐ सनकस्तृप्यताम् -2
ॐ सनन्दनस्तृप्यताम् – 2
ॐ सनातनस्तृप्यताम् -2
ॐ कपिलस्तृप्यताम् -2
ॐ आसुरिस्तृप्यताम् -2
ॐ वोढुस्तृप्यताम् -2
ॐ पञ्चशिखस्तृप्यताम् -2
पितृतर्पण
कुशों के मूल, और अग्रभाग को दक्षिण की ओर करके
अंगूठे और तर्जनी के बीच में रखे, स्वयं दक्षिण की ओर मुँह करे, बायें घुटने को ज़मीन पर लगाकर अपसव्यभाव (जनेऊको दायें कंधे पर रखकर बाँये हाथ के नीचे ले जायें) पात्रस्थ जल में काला तिल मिलाकर पितृतीर्थ से (अंगुठा और तर्जनी के मध्यभाग से) दिव्य पितरों के लिये निम्नाङ्कित मन्त्र-वाक्यों को पढ़ते हुए तीन-तीन अञ्जलि जल दें
ॐ कव्यवाडनलस्तृप्यताम् इदं सतिलं जलं (गङ्गाजलं वा) तस्मै स्वधा नमः – 3
ॐ सोमस्तृप्यताम् इदं सतिलं जलं गङ्गाजलं वा)
तस्मै स्वधा नमः – 3
ॐ यमस्तृप्यताम् इदं सतिलं जलं गङ्गाजलं वा) तस्मै स्वधा नमः – 3
ॐ अर्यमा तृप्यताम् इदं सतिलं जलं गङ्गाजलं वा)
तस्मै स्वधा नमः – 3
ॐ अग्निष्वात्ताः पितरस्तृप्यन्ताम् इदं सतिलं जलं (गङ्गाजलं वा) तेभ्यः स्वधा नमः – 3
ॐ सोमपाः पितरस्तृप्यन्ताम् इदं सतिलं जलं (गङ्गाजलं वा) तेभ्यः स्वधा नमः – 3
ॐ बर्हिषदः पितरस्तृप्यन्ताम् इदं सतिलं जलं (गङ्गाजलं वा) तेभ्यः स्वधा नमः – 3
यमतर्पण
इसी प्रकार निम्नलिखित मन्त्रों को पढ़ते हुए चौदह यमों के लिये भी पितृतीर्थ से ही तीन-तीन अञ्जलि तिल सहित जल दें
ॐ यमाय नमः – 3
ॐ धर्मराजाय नमः – 3
ॐ मृत्यवे नमः – 3
ॐ अन्तकाय नमः -3
ॐ वैवस्वताय नमः – 3
ॐ कालाय नमः – 3
ॐ सर्वभूतक्षयाय नमः – 3
ॐ औदुम्बराय नमः – 3
ॐ दध्नाय नमः – 3
ॐ नीलाय नमः – 3
ॐ परमेष्ठिने नमः – 3
ॐ वृकोदराय नमः – 3
ॐ चित्राय नमः -3
ॐ चित्रगुप्ताय नमः – 3
विशेष
जिनके पिता जीवित हों, वे लोग यहीं तक तर्पण करें, आगे का तर्पण नही करें।
जिनके पिता नहीं हैं वे लोग आगे का भी तर्पण करें, परन्तु यदि माता आदि जीवित हों तो उन उनको छोड़ करके अन्यों का तर्पण करें।
मनुष्यपितृतर्पण
इसके पश्चात् निम्नाङ्कित मन्त्रोंसे पितरों का आवाहन करें
ॐ आगच्छन्तु मे पितर इमं ग्रहणन्तु जलाञ्जलिम्।।
हे पितरों! पधारिये तथा जलांजलि ग्रहण कीजिए।
तदनन्तर अपने पितृगणों का नाम-गोत्र आदि उच्चारण करते हुए प्रत्येक के लिये पूर्वोक्त विधि से ही तीन-तीन अञ्जलि तिल-सहित जल इस प्रकार दें
अस्मत्पिता अमुकशर्मा वसुरूपस्तृप्यतांम् इदं सतिलं जलं गङ्गाजलं वा) तस्मै स्वधा नमः 3
अस्मत्पितामह: (दादा) अमुकशर्मा रुद्ररूपस्तृप्यताम् इदं सतिलं जलं गङ्गाजलं वा) तस्मै स्वधा नम: – 3
अस्मत्प्रपितामह: (परदादा) अमुकशर्मा आदित्यरूपस्तृप्यताम् इदं सतिलं जलं गङ्गाजलं वा) तस्मै स्वधा नमः – 3
अस्मन्माता अमुकी देवी वसुरूपा तृप्यताम् इदं सतिलं जलं तस्यै स्वधा नमः – 3
अस्मत्पितामही (दादी) अमुकी देवी रुद्ररूपा तृप्यताम् इदं सतिलं जलं तस्यै स्वधा नमः – 3
अस्मत्प्रपितामही परदादी अमुकी देवी आदित्यरूपा तृप्यताम् इदं सतिलं जल तस्यै स्वधा नमः – 3
इसके बाद वेदमंत्रों से जलधारा दी जाती है।
उसके बाद द्वितीय गोत्र तर्पण करें, द्वितीय गोत्र तर्पण अपने पिता माता आदि की तरह ही होगा।
जिसमें नाना, परनाना, वृद्धपरनाना, नानी, परनानी एवं वृद्धपरनानी को तीन-तीन अंजलि तिल मिश्रित जल से दें
इसके बाद नाम गोत्र का उच्चारण करते हुए अन्य संबंधी
(जो लोग मृत हो गए हों) उनके लिए भी एक-एक
अंजलि दी जाती है।
इन्हें एकोद्दिष्टगण कहते हैं जिसमें हैं- पत्नी, पुत्र, पुत्री, पिता के भाई, मामा, अपना भाई सौतेला भाई, बुआ, मौसी, बहन, सौतेली बहन, श्वशुर, गुरु, आचार्य पत्नी, शिष्य, मित्र, आप्तपुरुष आदि प्रिय जनका तर्पण करें।
इसके बाद सव्य होकर पूर्वाभिमुख हो नीचे लिखे श्लोकों को पढ़ते हुए जल गिरावे
देवासुरास्तथा यक्षा नागा गन्धर्वराक्षसाः । पिशाचा गुह्यकाः सिद्धाः कूष्माण्डास्तरवः खगाः ॥
इसके बाद सव्य होकर पूर्वाभिमुख हो नीचे लिखे श्लोकों को पढते हुए जल गिरावे
देवासुरास्तथा यक्षा नागा गन्धर्वराक्षसाः
पिशाचा गुह्यकाः सिद्धाः कूष्माण्डास्तरवः खगाः ॥ जलेचरा भूमिचराः वाय्वाधाराश्च जन्तवः ।
प्रीतिमेते प्रयान्त्वाशु मद्दत्तेनाम्बुनाखिलाः ॥
अर्थ: ‘देवता, असुर, यक्ष, नाग, गन्धर्व, राक्षस, पिशाच, गुह्मक, सिद्ध, कूष्माण्ड, वृक्षवर्ग, पक्षी, जलचर जीव और वायु के आधार पर रहनेवाले जन्तु-ये सभी मेरे दिये हुए जल से भीघ्र तृप्त हों
पितृधर्मसे जलधारा गिराए
नरकेषु समस्तेषु यातनासु च ये स्थिताः। तेषामाप्ययनायैतद्दीयते सलिलं मया ॥
येsबान्धवा बान्धवा वा येऽन्यजन्मनि बान्धवाः । ते सर्वे तृप्तिमायान्तु ये चास्मत्तोयकाङ्क्षिणः ॥
ॐ आब्रह्मस्तम्बपर्यन्तं देवर्षिपितृमानवाः । तृप्यन्तु पितरः सर्वे मातृमातामहादयः ॥
अतीतकुलकोटीनां सप्तद्वीपनिवासिनाम्। आ ब्रह्मभुवनाल्लोकादिदमस्तु तिलोदकम्॥
येsबान्धवा बान्धवा वा येऽन्यजन्मनि बान्धवाः । ते सर्वे तृप्तिमायान्तु मया दत्तेन वारिणा ॥
अर्थ: जो समस्त नर कों तथा वहाँ की यातना ओं में पड़े पड़े दुरूख भोग रहे हैं, उनको पुष्ट तथा शान्त करने की इच्छा से मैं यह जल देता हूँ।
जो मेरे बान्धव न रहे हों, जो इस जन्म में बान्धव रहे हों, अथवा किसी दूसरे जन्म में मेरे बान्धव रहे हों, वे सब तथा इनके अतिरिक्त भी जो मुख से जल पाने की इच्छा रखते हों, वे भी मेरे दिये हुए जल से तृप्त हो ।
ब्रह्माजी से लेकर कीटों तक जितने जीव हैं, वे तथा देवता, ऋषि, पितर, मनुष्य और माता, नाना आदि पितृगण-ये सभी तृप्त हों।
मेरे कुलकी बीती हुई करोड़ों पीढियों में उत्पन्न हुए जो-जो पितर ब्रह्मलोकपर्यन्त सात द्वीपों के भीतर कहीं भी निवास करते हों, उनकी तृप्ति के लिये मेरा दिया हुआ यह तिलमिश्रित जल उन्हें प्राप्त हो।
जो मेरे बान्धव न रहे हों, जो इस जन्ममें या किसी दूसरे जन्मों में मेरे बान्धव रहे हों, वे सभी मेरे दिये हुए जलसे तृप्त हो जायँ ।
वस्त्रनिष्पीडन
तत्पश्चात् वस्त्र को चार आवृत्ति लपेटकर जल में डुबावे और बाहरले आकर निम्नाङ्कित मन्त्र :
ये के चास्मत्कुले जाता अपुत्रा गोत्रिणो मृता । ते गृह्णन्तु मया दत्तं वस्त्रनिष्पीडनोदकम्।।
को पढ़ते हुए अपसव्य होकर अपने बाएँ भाग में भूमिपर उस वस्त्रको निचोड़े ।
यदि घर में किसी मृत पुरुष का वार्षिक श्राद्ध आदि कर्म हो तो वस्त्र-निष्पीडन नहीं करना चाहिये
भीष्मतर्पण
इसके बाद दक्षिणाभिमुख हो पितृतर्पणके समान ही, अनेऊ अपसव्य करके, हाथ में कुश धारण किये हुए ही बालब्रह्मचारी भक्तप्रवर भीष्मजी के लिये पितृतीर्थसे तिलमिश्रित जलके द्वारा तर्पण करे ।
उनके लिये तर्पण का मन्त्र निम्नाकित श्लोक है
वैयाघ्रपदगोत्राय साङ्कृतिप्रवराय च। गङ्गापुत्राय भीष्माय प्रदास्येऽहं तिलोदकम्। अपुत्राय ददाम्येतत्सलिलं भीष्मवर्मणे ॥
अर्घ्यदान
फिर शुद्ध जल से आचमन करके प्राणायाम करे
तदनन्तर यज्ञोपवीत सव्यकर एक पात्रमें शुद्ध जल भरकर उसमे श्वेत चन्दन, अक्षत, पुष्प तथा तुलसीदल छोड़ दे ।
फिर दूसरे पात्रमें चन्दन्से षड्दल कमल बनाकर उसमें पूर्वादि दिशाके क्रमसे ब्रह्मादि देवताओं का आवाहन पूजन करे
तथा पहले पात् के जल से उन पूजित देवताओं के लिये अर्ध्य अर्पण करे ।
अर्घ्यदान के मन्त्र निम्नाकित हैं
ब्रह्म ॐ जज्ञानं प्रथमं पुरस्ताद्वि सीमतः सुरुचो व्वेन आवः । स बुध्न्या उपमा ऽअस्य विष्ठाः सतश्च योनिमसतश्व व्विवः ॥ ॐ ब्रह्मणे नमः ।
ॐ इदं विष्णुर्विचक्रमे त्रेधा निदधे पदम् । समूढमस्यपा, सुरे स्वाहा ॥ ॐ विष्णवे नमः ।
ॐ नमस्ते रुद्र मन्यव ऽउतो त ऽइषवे नमः । वाहुब्यामुत ते नमः ॥
ॐ रुद्राय नमः ।
ॐ तत्सवितुर्वरेण्यं भर्गो देवस्य धीमहि धियो यो
नः प्रचोदयात् ॥
ॐ सवित्रे नमः ।
ॐ मित्रस्य चर्षणीधृतोऽवो देवस्य सानसि द्युम्नं चित्रश्रवस्तमम् ॥
ॐ मित्राय नमः ।
ॐ इमं मे वरुण श्रुधी हवमद्या च मृडय । त्वामवस्युराचके ॥
ॐ वरुणाय नमः ।
सूर्यार्थ
एहि सूर्य सहस्त्राशो तेजो राशे जगत्पते।
अनुकम्पय मां भक्त्या गृहाणार्घ्यं दिवाकर।
हार्थोको उपर कर उपस्थान मंत्र पढ़ें –
ॐ चित्रं देवानामुदगादनीकं चक्षुर्मित्रस्य वरुणस्याग्नेः आप्राद्यावापृथ्वी ऽअन्तरिक्ष@ सूर्यऽआत्माजगतस्तस्थुषश्च । खड़े होकर वहीं घूमते हुए 7 बार सूर्य की प्रदक्षिणा करें।
फिर परिक्रमा करते हुए दशों दिशाओं को और 10 दिग्पालों को नमस्कार करें
ॐ प्राच्यै नमः, इन्द्राय नमः ।
ॐ आग्नेयायै नमः, आग्नेय नमः ।
ॐ दक्षिणायै नमः, यमाय नमः । ॐ नैर्ऋत्यै नमः, निर्ऋतये नमः ।
ॐ पश्चिमायै नमः, वरूणाय नमः।
ॐ वायव्ये नमः, वायवे नमः ।
ॐ उदीच्यै नमः, कुवेराय नमः ।
ॐ ऐशान्यै नमः, ईशानाय नमः ।
ॐ ऊर्ध्वायै नमः, ब्रह्मणे नमः । ॐ अवाच्यै नमः, अनन्ताय नमः ।
इस तरह दिशाओं और देवताओं को नमस्कार कर,
बैठकर नीचे लिखे मन्त्रोंसे पुनः देवतीर्थ से तर्पण करें।
ॐ ब्रह्मणे नमः ।
ॐ अग्नयै नमः ।
ॐ पृथिव्यै नमः ।
ॐ औषधिभ्यो नमः ।
ॐ वाचे नमः ।
ॐ वाचस्पतये नमः ।
ॐ महद्भ्यो नमः ।
ॐ विष्णवे नमः ।
ॐ अद्भ्यो नमः ।
ॐ अपापतये नमः ।
ॐ वरुणाय नमः ।
फिर तर्पण के जल को मुख पर लगायें और तीन बार ॐ अच्युताय नमः मंत्र का जप करें।
समर्पण- उपरोक्त समस्त तर्पण कर्म भरावानको
समर्पित करें।
ॐ तत्सद् कृष्णार्पण मस्तु श्रीविष्णवे नमः – 12
नोट- यदि नदी आदि में तर्पण किया जाय, तो दोनों हाथों को मिलाकर जल से भरकर गोसींग जितना ऊँचा उठाकर जल में ही अंजलि डाल दें
द्वी हस्ती युग्मतः कृत्वा पूरयेदुदकाञ्जलिम्। गोश्रृङ्गमात्रमृद्धृत्य जलमध्ये जलं क्षिपेत्।।